Thursday, September 21, 2023

फलाने की सरकार और सवर्णों की स्थिति

दलित, महादलित, पिछड़ा, अतिपिछड़ा, आदिवासी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, शिया, सुन्नी, सवर्ण ...इत्यादि हों अथवा 
ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय, कायस्थ, हरिजन, सिक्ख, जैन, पारसी, ईसाई, बौद्ध, अहीर, शेख, अहमदिया, पसमांदा, .. इत्यादि
सरकार तो सबकी ही होती है और होनी भी चाहिए

लोकतंत्र का मतलब ही यही है कि लोग अपने शासक स्वयं चुनते हैं और जाहिर सी बात है जब इतना विशाल जनसमूह किन्हीं दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति/पार्टी में से एक का चुनाव करेगा तो कुछ लोग विरोध में भी रहेंगे। सर्वसम्मति की संभावना नगण्य ही होगी।
इसमें कोई समस्या नहीं है।

समस्या तब होती है जब एक चुनी हुई सरकार के प्रतिनिधि/नेतृत्वकर्त्ता/नीति-नियंता कहते हैं कि ये सरकार फलाने जाति विशेष अथवा धर्म/वर्ग विशेष की है।
क्या ऐसा कहना लोकतंत्र की व्यवस्था को जूता मारना नहीं है?

किसी सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक अथवा राजनैतिक कारणों से पिछड़े समुदाय, धर्म, वर्ग अथवा जाति विशेष को अन्य की बराबरी में लाने का समुचित एवं न्यायसंगत प्रयास होना चाहिए उसमें कुछ गलत नहीं।
किंतु ऐसा करने के लिए बाकियों की सर्वथा उपेक्षा करना कहाँ तक न्याय/धर्म संगत अथवा लोकतांत्रिक है?

आजकल नेताओं एवं पार्टियों द्वारा खुद को किसी जाति अथवा वर्ग विशेष का पुरजोर हितैषी घोषित करने की होड़ सी लगी हुई है। कोई खुद को दलित हितैषी बताता है तो कोई मुस्लिम समाज का खेवनहार बताता है। कोई सामाजिक न्याय तो कोई गरीब एवं पिछड़ों की वकालत का ढोंग करता है।
किंतु क्या ये सच में उनका भला करते हैं अथवा करना भी चाहते हैं?

अधिकांश सिर्फ राजनीति कर खुद का भला करना चाहते हैं।
परंतु अफसोस यही है कि बेचारे मासूम लोग इन धूर्तों को अपना हितैषी समझते हैं। लोग बस अपनी स्थिति को अपनी नियति मान इनसे उम्मीद की टकटकी लगाये अपनी पीढियां होम कर देते हैं।
किंतु ये लोग अपने अपने एजेंडे पर चलते हुये उचित कदम उठाने की जगह सिर्फ नौटंकी करते हैं और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए धनोपार्जन में लगे रहते हैं। लोगों की मासूम उम्मीदों को रौंद ये लोग हर वो सुख भोगते हैं जिसकी कल्पना आखिरी छोर पर खड़ा परिवार स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।

सवर्ण भी इनसे अलग नहीं हैं
अंतर बस इतना है कि सवर्णों के हित की बात कोई नहीं करता तो सवर्ण सारे ही तथाकथित नेताओं से अपने हित अथवा (ये कहना अधिक उचित होगा कि) वास्तविक बराबरी के मौकों उम्मीद लगा बैठते हैं। 
वो सोचते हैं कि ये वाली सरकार शायद रेवडियाँ छोड़ असल मुद्दों पर ध्यान देगी और सबको एक नजर से देखेगी।
पर यहीं वो मात खा जाते हैं।

वो भूल जाते हैं कि इस आधुनिक राजनीति में वो सिर्फ कमाने, खाने, ईमानदारी से टैक्स भरने (जो टैक्स स्लैब में आते हैं), खुद को जीवित रखने की हरसंभव कोशिश करने, चाहे अनचाहे धूर्तों में से एक कम धूर्त का चुनाव करने एवं अंत में मृत्यु को प्राप्त होने मात्र के लिए रह गये हैं।
इससे अधिक उनके लिए कुछ नहीं है।
इससे अधिक की इच्छा महापाप है

राजनीति भीड़ के हवाले है
जबतक आप सड़क पर उतर सत्ता को अपदस्थ करने अथवा देश भर में उत्पात मचा अराजकता उत्पन्न करने की क्षमता का प्रदर्शन नहीं करेंगे तब तक राजनीति को आपके होने ना होने से फर्क नहीं पड़ेगा।
सरकार अब उन्हीं की सुनती एवं चरणों में लोटती है जो देश में दंगों की स्थिति उत्पन्न करने की क्षमता का प्रदर्शन करते हैं एवं समय समय पर सत्ता में काबिज लोगों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से धमकाते हैं कि हम तुम्हें अपदस्थ कर सकते हैं।

ये फलाने और ढिमकाने की सरकार होने की बात कहने वाले सरकारी पालतू पशु नितांत मूर्ख हैं।
अगर अभी सवर्ण कहे कि मैं इस सरकार या इसके तंत्र के नियमों को नहीं मानूँगा तो तुरंत पूरी सरकार और उसके समस्त तंत्र मिलकर उसको अहसास करा देंगे कि ये सवर्णों की भी सरकार है। तब सवर्ण याद आ जायेगा। किंतु सरकारी योजनाओं/नीतियों अथवा बयानबाजी के समय सवर्ण कूड़े की भांति उपेक्षित कर दिया जाता है।

सरकार के नेत्तृत्वकर्ताओं/नीति नियंताओं/प्रतिनिधियों अथवा सरकारी पालतू पशुओं को ऐसी ऊटपटांग बयानबाजी बंद करनी चाहिए एवं सबको एक नजर से देखना चाहिए क्योंकि..
सरकार किसी फलाने की ना होकर सबकी होती है

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